अनादि काल से मानव के प्राण व नयन भूत धर्म ग्रंथो मे श्री शिव सनकादिक तथा ब्रह्म संप्रदाय के रूप मे सदाकालीन सनातन धर्म के आत्मोद्धारकारी चार प्रधान धर्म स्तम्भ दर्शाये गए है। इन में से "श्री" संप्रदाय के अंतर्गत काशी नगरी में जगत विख्यात महापुरुष श्री स्वामी रामानन्द जी महाराज [वि.सं.1356] हुए। उनके पश्चात वैष्णव परंपरा वर्धक श्री अनंतानन्द जी, श्री कर्मचन्द जी, श्री देवाकर जी, श्री पूर्ण मालवीय जी, श्री दामोदरदास जी, श्री नारायनदास जी तथा श्री मोहनदास जी महाराज आदि महापुरुष हुए।

इनके बाद सुयोग्य शिष्य श्री माधोदास जी मैदानी कोड़मदेसर (बीकानेर) में हुए। ये पहले तो माधोसिंह नामधारी एक नामी डाकू थे; किन्तु रामकृपा से बाद में बदले तो एसे बदले कि सबकुछ छोड़कर रहने वाले ही हो गए । अपनी तीव्र साधना के बल से इन्होने क्षेत्रपाल(भैरव) को भी खेमदास नाम का शिष्य बना लिया था।

माधोदास जी के शिष्य श्री सुंदरदासजी हुए। फिर श्री चरणदास जी हुए। आप के शिष्य श्री जैताराम जी (जैमलदासजी) महाराज हुए। आप का निवास स्थल व तपस्थली दुलचासर नामक ग्राम रहा है। इनसे पूर्व के ऊपरयुक्त परंपरागत सभी महापुरूष पूर्ण वैष्णव मतानुगामी अर्थात सगुण व साकारोपासक हुए है। पूर्व में जैताराम नामक जैमलदासजी महाराज भी सगुनोपासना में ही तल्लीन थे; किन्तु वि.सं.1760 के चातुर्मास्य काल में एक दिन स्वयं भगवान ने गूदड़ बाबा के रूप में प्रकट होकर इन्हें निरगुणोपासना का उपदेश तथा "जैमलदास" नाम दे दिया । तत्पश्चात ये पूर्व भेष (वैष्णव) मत को छोड़ सर्वथा निरगुणोपासना में लग गए। इस तरह स्वयं परात्पर ब्रह्म (राम महाराज) नें रामस्नेही धर्म का बीजारोपन किया तथा श्री जैमलदासजी महाराज इस धर्म के मूल प्रवर्तक महापुरुष हुए। आपका साधना निवासस्थल तो ग्राम दुलचासर रहा है। किन्तु परम धाम पधारने का स्थल नोंखा मंडी (बीकानेर) के निकट स्थित "रोड़ा" नामक ग्राम है। यंहा पर श्री दयालुदास जी महाराज(खेड़ापा) के द्वारा निर्मित देवल के निकट आप के दातून की चीर से उत्पन्न नीम का पेड़ अध्यावधि आप का दिव्य प्रभाव प्रकट कर रहा है।

बीकानेर से 33 किलोमीटर पर स्थित सिंहस्थल (सिंथल) में विराजमान श्री हरीरामदास जी महाराज ने वि.सं.1800 के आषाढ़ कृष्ण-13 के दिन इन श्री जैमलदासजी महाराज से दीक्षा ग्रहण की । आपने सिंहस्थल में रहकर खूब रामभजन किया तथा रामस्नेही धर्म का पर्याप्त प्रचार किया । फल स्वरूप सिंहस्थल में एक सुविख्यात रामस्नेही आचार्य पीठ बन गया।

"हरि कन्या पुनिजन्म धुर, ता अंत कविता खेत।
ईश्म ताहि पुर वंदना, श्वेत द्वीप साकेत॥"

"बलि जाऊं सिंथल शहर सु थान।
हरियानन्द आनंद के करता, अनभव प्रग्ट्यो भान॥"

श्वेतद्वीप व साकेत धाम तुल्य जिस सिंहस्थल धाम पर ऊपर्युक्त वचनो से श्री दयालदासजी महाराज न्योछावर हो रहे है, उस सिंहस्थल गुरुधाम को हमारा बारंबार प्रणाम है।

विक्रम संवत 1783 फाल्गुन कृष्ण 13 (शिवरात्रि) के दिन बिकमकोर (जिला जोधपुर) में अवतरित श्री रामदासजी महाराज ने 25 वर्ष की आयु तक असंतुश्टीप्रद अनेक (बारह) गुरुओं से मीली साधना करने के बाद सींथल पहुँचकर वै.शु.11 संवत 1809 के दिन श्री हरीरामदासजी महाराज से पूर्ण संतुष्टि प्रद दीक्षा ग्रहण की । दिक्षोपरांत भजन साधना करने के लिए आपने अपने निवास भूत ननिहाल के गाँव खेड़ापा को छोड़कर यंहा से लगभग दो कोस (6 किलोमीटर ) दूरस्थ मेलाणा गाँव को चुना। यंहा एकांत में गूँदी पेड़ के नीचे बैठकर लगभग 6/7 वर्ष तक भजन साधन किया। आपकी नाम साधना का संबल लिए वह गूँदी-वृक्ष सूखे हालत में उसी जगह चबूतरे में खड़ा किया हुआ आज भी विध्यमान है । पिछले आचार्य श्री की इस तपस्थली को चार दीवारी बनाकर सुरक्षित व सुव्यवस्थित बनाया गया है ।

कुछ दिन मालवा प्रांत की यात्रा के बाद श्री रामदास जी महरा ने विक्रम संवत 1817 से 1820 तक (लगभग चार वर्ष पर्यंत) आसोप गाँव के नौसर तालाब पर भजन साधन किया। यंहा पर वे पुराने राजे महाराजों की बनी छत्री की गुफा में रहते थे। उन्हे यंही पर कार्तिक शु.15 विक्रम संवत 1820 के दिन साधना की पूर्णता "ब्राह्मी स्थिति" उपलब्ध हुई। स्वयं उन्होने इसका उल्लेख करते हुए अपनी अनुभव वाणी में लिखा है :- "रामदास बीसो वरस , ता में कातिमास।
वा दिन छाड़ी त्रुग्गटी, किया ब्रह्म में वास॥"
यंही निवास के समय आपने बहुत सी अनुभव वाणी का सृजन किया था। आपकी सम्पूर्ण अनुभव वाणी लगभग 4300 श्लोक मेध्या परिमित है। आप की यह अनुभव वाणी "श्री रामदास जी महाराज की अनुभव वाणी" नाम से प्रकाशित हो चुकी है।

आसोप निवासकाल के समय व्यत्तिपात योग के अवसर पर एक दिन आसोप के राजा सा. ने ग्रामवासी जती,योगी, जैन,सन्यासी,ब्राह्मण आदि को एक-एक रूपया दान दिया। वितरकगन श्री रामदास जी महाराज से रूपया ले लेने का आग्रह करने लगे पर आपने - "पुन को लेवां कदै न कोई। हरि को लेवां हरि क होई॥" कहकर लेने से इंकार कर दिया। यह बात सुन दम्मी राजा बोले-"वे ऐसे स्वाभिमानी हैं तो मेरी (पराई) बस्ती(गाँव) में क्यों बैठें है?" यह समाचार मिलते ही श्री रामदास जी महाराज तत्काल आसोप का परित्याग कर वंहा से चल दिये ।

आसोप क परित्याग करने के बाद आप कुछ दिन अरटिया में रहे । फिर खेड़ापा के तत्कालीन ठाकुर सा. श्री पद्मसिंह जी के विशेष आग्रह से आप वि.सं.1822 में खेड़ापा ग्राम पधारे और जंहा अभी जूनीजागा (आदिधाम) नामक स्थान है; वहाँ पर निवास कर लिया।


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