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श्री श्री १००८ श्री दयाल दास जी महाराज (द्वितीय आचार्य)

विक्रम सम्वत १८१३ to विक्रम सम्वत १८८५





- वि.सं. १८१६  मार्ग शीर्ष  ११ (गीता जयन्ती) के दिन बडु गांव (जिला - नागौर) में सुंदर माता के उदर से आप का प्रादुर्भाव हुआ।  आपका सम्पूर्ण बाल्यकाल पिता और गुरु श्री रामदासजी महाराज के पावन चरणों में बीता इसलिए आप में  उनके दिव्य संस्कारों का आना स्वाभाविक था।  

आप १८३०-३५ के समय में गुरूवर्य श्री रामदासजी महाराज से सविधि नामजप की दीक्षा ग्रहण करके विशेष साधन में लग गए।  आपने पहाड़ी की गुफा में तपस्या कर बहुत जल्दी साधन की पूर्णता प्राप्त कर ली।  जब भी गुरु महाराज बाहर रामत में पधारते थे तो आप दुखी होते थे।  शास्त्रों के आप प्रकण्ड विद्वान थे।  इस कारण जो भी जिज्ञासु, तर्की या कुतर्की आपके सामने आता है वह सन्तुष्ट व नतमस्तक होकर वापस लौटा।  श्री रामदासजी महाराज के परमधाम पधारने के समय इन्हे  गुरु महाराज का वियोग असहनीय हो गया था।  इस कारण तीसरे दिन स्वयं रामदासजी महाराज ने प्रकट होकर उन्हें धेर्यविलम्बन  करवाया था।  आप अषाढ़ शु ८  सं वि.सं.१८५५ के दिन आचार्य पीठासीन हुए।  लगभग ३० साल तक आचार्य पद से जीवों को कल्याण पथ बताते हुए आप वि सं  १८८५ माघ कृ  १० के दिन परम धाम पधार गए।  

आपने गुरु महाराज की मौजूदगी में ही उनके आदेश से कई ग्रन्थों की व वाणियो की रचना की थी।  उनके परमधाम पधारने के बाद भी आपने बहुत बड़े साहित्य का सृजन किया था।  आप की वाणी व कवित्त्व बहुत ही प्रभावशाली  है।  आप की यह वाणी केवल रामस्नेही - साहित्य में ही नहीं अपितु भारतीय निर्गुण काव्यांक के प्रचार में अपना एक स्थान रखती है।  आपकी उपलब्ध सम्पूर्ण वाणी लगभग ३६ हज़ार श्लोक मेध्या परिमित है;  जो कि आपके वाणी के नाम से सात खण्डों में प्रकाशित है।


नमो राम गुरुदेवजी , जन त्रिकाल के वन्द ।
विघ्न हरण मंगल करण , रामदास आनन्द ।।


                                  

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